What is 11th Sharif - 11वीं शरीफ़ क्या है?
What is 11th Sharif - 11वीं शरीफ़ क्या है |
बड़े पीर ग़ौसुल आज़म दस्तगीर सैय्यदुना शेख़ अब्दुल क़ादिर जीलानी सुम्मा बग़दादी रहमतुल्लाह अलैह के नाम से दुनिया भर में जो 11वीं शरीफ़ मनाई जाती है, वह दरअसल इसाल-ए-सवाब है, जो आपकी वफ़ात की तारीख़ में होती है। आपकी वफ़ात 11 रबीउल आखिर को हुई।
हजूर ग़ौस-ए-पाक रहमतुल्लाह अलैह का विसाल कब हुआ ?
हजूर ग़ौस-ए-पाक रहमतुल्लाह अलैह का विसाल 90 साल की उम्र में बग़दाद शरीफ़ में हुआ। (कुछ रिवायतों में 82 साल भी है लेकिन ज़्यादा सही 90 साल मानी गई है)। उस समय इस्लामी साल 561 हिजरी था। यानी अब तक 886 साल पूरे हो चुके हैं।
जो लोग 11वीं की हक़ीक़त को नहीं समझते, वे बिना सोचे-समझे इसे शिर्क, कुफ़्र और हराम-नाजायज़ कह देते हैं, जबकि 11 वीं करना साबित है और करने वालों पर अल्लाह का फ़ज़्ल व करम और ग़ौस-ए-आज़म की नज़र-ए-इनायत होती है। क्योंकि आप जमाअत-ए-अवलिया के सरदार हैं। जो मक़ाम अल्लाह ने आपको अता किया, वह आपके बाद किसी को नहीं मिला। अब वह मक़ाम सिर्फ़ सय्यदुना इमाम महदी अलैहिर रहमा को मिलेगा।
11 वी में क्या क्या होता है और ऐसा करना कहाँ से साबित है ?
11 वीं यानी हज़रत ग़ौस-ए-पाक रहमतुल्लाह अलैह की वफ़ात के दिन यानी 11 रबीउल आखिर को इसाल-ए-सवाब करना – क़ुरान पढ़ना, दरूद शरीफ़ पढ़ना, ज़िक्र व अज़कार करना, नात व मनक़़बत पढ़ना, ग़रीबों और मुहताजों को खाना खिलाना, सदक़ा व ख़ैरात करना, महफ़िल में उनकी सीरत पर बयान करना – यही सब होता है। और इसकी असल क़ुरान, हदीस और असलाफ़ के अक़वाल से साबित है।
अक़्सर लोग 11 रबीउल आखिर को 11वीं करते हैं, कुछ पूरा महीना करते हैं और कुछ हर महीने की 11 तारीख़ को करते हैं। याद रहे, इसाल-ए-सवाब जब भी किया जाए, जायज़ और मुस्तहसन है।
आईये हम ईसाले सवाब को कुरआन और हदीस से समझें
क़ुरआन से दलील ( सूरह- हश्र 59, आयत-10 )
وَ الَّذِیْنَ جَآءُوْا مِنْۢ بَعْدِهِمْ یَقُوْلُوْنَ رَبَّنَا اغْفِرْ لَنَا وَ لِاِخْوَانِنَا الَّذِیْنَ سَبَقُوْنَا بِالْاِیْمَانِ
तरजमा :- “और जो उनके बाद आए, अर्ज़ करते हैं: ऐ हमारे रब! हमें बख़्श दे और हमारे उन भाइयों को भी जो हमसे पहले ईमान लाए।”
इस आयत से साफ़ मालूम हुआ कि जो अहले ईमान पहले गुज़र चुके हैं, उनके लिए दुआ करना, इसाल-ए-सवाब करना जायज़ ही नहीं बल्कि हुक्म-ए-क़ुरानी है।
हदीस से दलील (सहीह बुख़ारी)
ان رجلا قال للنبی صلی اللہ علیہ وسلم ان أمی افتلتت نفسھا و أظنھا لو تکلمت تصدقت فھل لھا أجر ان تصدقت عنھا قال نعم،
तर्जमा :- एक शख़्स ने हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से अर्ज़ किया :“मेरी मां का अचानक इंतिक़ाल हो गया। मुझे उम्मीद है कि अगर उन्हें बात करने का मौक़ा मिलता तो वे सदक़ा करतीं। अगर अब मैं उनकी तरफ़ से सदक़ा करूं तो क्या उन्हें सवाब मिलेगा ?”आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया: “हाँ, मिलेगा।”
(सहीह बुख़ारी, Vol - 1, सफ़ा 186)
इससे साबित हुआ कि दुनिया से गुज़र जाने वाले मुसलमान के लिए जो इसाल-ए-सवाब किया जाए, उसका सवाब उन्हें पहुँचता है।
फ़ीक़ह हनफी कि किताब (रद्दुल मुह्तार में है )
صرح علماء نا فی باب الحج عن الغیر بأن للانسان أن یجعل ثواب عملہ لغیرہ صلاۃ أوصوما أو صدقۃ أو غیرھا کذا فی الھدایۃ,
हमारे उलमा ने तसरीह फरमाई है कि इंसान अपने आमाल का सवाब दूसरों को पहुँचा सकता है – नमाज़ हो, रोज़ा हो, सदक़ा हो या कुछ और। (हिदाया में भी यही है)
(रद्दुल मुह्तार अला दुर्रे मोख्तार,Vol-3, P- 180)
अब अगर कोई एतराज करें के 11 तारीख़ को ही को क्यों करते हैं ?
तो जवाब यह है कि हम इसे फ़र्ज़ या वाजिब नहीं समझते। बस एक आदत और लोगों को जमा करने के लिए यह दिन तय हुआ ताकि सब आसानी से शामिल हो सकें। वरना इसाल-ए-सवाब साल के 12 महीनों और 365 दिनों में कभी भी किया जाए, सवाब मिलेगा।
आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा ख़ान बरेलवी अलैहिर रहमा फ़रमाते हैं
हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सोमवार का रोज़ा रखा। क्या अगर इतवार या मंगलवार को रखते तो रोज़ा न होता ? या फिर क्या इससे यह समझा जाए कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सोमवार का रोज़ा वाजिब समझा? यही हुक्म तीसरे दिन (तीजे), चालीसवें दिन (चहलुम) और औलिया की नियाज़ का है कि दिन तय किया जाता है ताकि लोगों को याद रहे।
(फ़तावा रज़विया, Vol- 9, P - 605)
नतीजा :-
आप बड़े पीर की 11वीं एहतिमाम से करें, बस ख़िलाफ़-ए-शरीअत कामों से बचें। अलहम्दुलिल्लाह उलमा के पास इसके जवाब की भरपूर दलीलें हैं।
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